रामचरित मानस
जब अयोध्या का महल छोड़कर वनवास के लिए निकले श्रीराम, सीताजी और लक्ष्मणजी(राम आ रहे हैं…जी हां, सदियों के लंबे इंतजार के बाद भव्य राम मंदिर बनकर तैयार है और प्रभु श्रीराम अपनी पूरी भव्यता-दिव्यता के साथ उसमें विराजमान हो रहे हैं. इस श्रृंखला ‘रामचरित मानस‘ में आप पढ़ेंगे भगवान राम के जन्म से लेकर लंका पर विजय तक की पूरी कहानी.)वन का सब साज-सामान सजकर श्रीरामचन्द्रजी, श्रीसीताजी और लक्ष्मणजी सहित, ब्राह्मण और गुरु के चरणों की वन्दना करके सबको अचेत करके चले. राजमहल से निकलकर श्रीरामचन्द्रजी वसिष्ठजी के दरवाजे पर जा खड़े हुए और देखा कि सब लोग विरह की अग्नि में जल रहे हैं. उन्होंने प्रिय वचन कहकर सबको समझाया. फिर श्रीरामचन्द्रजी ने ब्राह्मणों की मंडली को बुलाया. गुरुजी से कहकर उन सबको वर्षाशन (वर्ष भर का भोजन) दिए और आदर, दान तथा विनय से उन्हें वश में कर लिया. फिर याचकों को दान और मान देकर सन्तुष्ट किया तथा मित्रों को पवित्र प्रेम से प्रसन्न किया. फिर दास-दासियों को बुलाकर उन्हें गुरुजी को सौंपकर, हाथ जोड़कर बोले- हे गोसाईं! इन सबकी माता-पिता के समान देख-रेख करते रहियेगा. श्रीरामचन्द्रजी बार-बार दोनों हाथ जोड़कर सबसे कोमल वाणी कहते हैं कि मेरा सब प्रकार से हितकारी मित्र वही होगा जिसकी चेष्टा से महाराज सुखी रहें. हे परम चतुर पुरवासी सज्जनो! आपलोग सब वही उपाय करियेगा जिससे मेरी सब माताएं मेरे विरह के दुख से दुखी न हों. इस प्रकार श्रीरामजी ने सबको समझाया और हर्षित होकर गुरुजी के चरणकमलों में सिर नवाया. फिर गणेशजी, पार्वतीजी और कैलासपति महादेवजी को मनाकर तथा आशीर्वाद पाकर श्रीरघुनाथजी चले. श्रीरामजी के चलते ही बड़ा भारी विषाद हो गया.
नगर का आर्तनाद (हाहाकार) सुना नहीं जाता. लंका में बुरे शकुन होने लगे, अयोध्या में अत्यन्त शोक छा गया और देवलोक में सब हर्ष और विषाद दोनों के वश में हो गए.मूर्छा दूर हुई, तब राजा जागे और सुमन्त्र को बुलाकर ऐसा कहने लगे- श्रीराम वन को चले गए, पर मेरे प्राण नहीं जा रहे हैं. न जाने ये किस सुख के लिए शरीर में टिक रहे हैं. इससे अधिक बलवती और कौन-सी व्यथा होगी जिस दुख को पाकर प्राण शरीर को छोड़ेंगे. फिर धीरज धरकर राजा ने कहा- हे सखा ! तुम रथ लेकर श्रीराम के साथ जाओ. अत्यन्त सुकुमार दोनों कुमारों को और सुकुमारी जानकी को रथ में चढ़ाकर, वन दिखलाकर चार दिन के बाद लौट आना. यदि धैर्यवान दोनों भाई न लौटें- क्योंकि श्रीरघुनाथजी प्रण के सच्चे और दृढ़ता से नियम का पालन करने वाले हैं, तो तुम हाथ जोड़कर विनती करना कि हे प्रभु! जनककुमारी सीताजी को तो लौटा दीजिए. जब सीता वन को देखकर डरें, तब मौका पाकर मेरी यह सीख उनसे कहना कि तुम्हारे सास और ससुर ने ऐसा सन्देश कहा है कि हे पुत्री! तुम लौट चलो, वन में बहुत क्लेश हैं. कभी पिता के घर, कभी ससुराल, जहां तुम्हारी इच्छा हो, वहीं रहना. इस प्रकार तुम बहुत से उपाय करना. यदि सीताजी लौट आईं तो मेरे प्राणों को सहारा हो जायगा. नहीं तो अन्त में मेरा मरण ही होगा. विधाता के विपरीत होने पर कुछ वश नहीं चलता. हां! राम, लक्ष्मण और सीता को लाकर दिखाओ. ऐसा कहकर राजा मूर्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़े.सुमन्त्रजी राजा की आज्ञा पाकर, सिर नवाकर और बहुत जल्दी रथ जुड़वाकर वहां गए जहां नगर के बाहर सीताजी सहित दोनों भाई थे. तब सुमन्त्र ने राजा के वचन श्रीरामचन्द्रजी को सुनाए और विनती करके उनको रथ पर चढ़ाया. सीताजी सहित दोनों भाई रथ पर चढ़कर हृदय में अयोध्या को सिर नवाकर चले. श्रीरामचन्द्रजी को जाते हुए और अयोध्या को अनाथ होते हुए देखकर सब लोग व्याकुल होकर उनके साथ हो लिए. कृपा के समुद्र श्रीरामजी उन्हें बहुत तरह से समझाते हैं, तो वे अयोध्या की ओर लौट जाते हैं; परन्तु प्रेमवश फिर लौट आते हैं. अयोध्यापुरी बड़ी डरावनी लग रही है. मानो अन्धकारमयी कालरात्रि ही हो. नगर के नर-नारी भयानक जन्तुओं के समान एक-दूसरे को देखकर डर रहे हैं. घर श्मशान, कुटुम्बी भूत-प्रेत और पुत्र, हितैषी और मित्र मानो यमराज के दूत हैं. बगीचों में वृक्ष और बेलें कुम्हला रही हैं. नदी और तालाब ऐसे भयानक लगते हैं कि उनकी ओर देखा भी नहीं जाता. करोड़ों घोड़े, हाथी, खेलने के लिए पाले हुए हिरन, नगर के गाय, बैल, बकरी आदि पशु, पपीहे, मोर, कोयल, चकवे, तोते, मैना, सारस, हंस और चकोर श्रीरामजी के वियोग में सभी व्याकुल हुए जहा-तहा खड़े हैं, मानो तसवीरों में लिखकर बनाये हुए हैं. नगर मानो फलों से परिपूर्ण बड़ा भारी सघन वन था. नगरनिवासी सब स्त्री-पुरुष बहुत-से पशु-पक्षी थे.
विधाता ने कैकेयी को भीलनी बनाया, जिसने दसों दिशाओं में दुःसह दावाग्नि (भयानक आग) लगा दी. श्रीरामचन्द्रजी के विरह की इस अग्नि को लोग सह न सके. सब लोग व्याकुल होकर भाग चले. सबने मन में विचार कर लिया कि श्रीरामजी, लक्ष्मणजी और सीताजी के बिना सुख नहीं है. जहां श्रीरामजी रहेंगे, वहीं सारा समाज रहेगा. श्रीरामचन्द्रजी के बिना अयोध्या में हमलोगों का कुछ काम नहीं है. ऐसा विचार दृढ़ करके देवताओं को भी दुर्लभ सुखों से पूर्ण घरों को छोड़कर सब श्रीरामचन्द्रजी के साथ चल पड़े. जिनको श्रीरामजी के चरणकमल प्यारे हैं, उन्हें क्या कभी विषयभोग वश में कर सकते हैं. बच्चों और बूढ़ों को घरों में छोड़कर सब लोग साथ हो लिए. पहले दिन श्रीरघुनाथजी ने तमसा नदी के तीरपर निवास किया. प्रजा को प्रेमवश देखकर श्रीरघुनाथजी के दयालु हृदय में बड़ा दुख हुआ. प्रभु श्रीरघुनाथजी करुणामय हैं. परायी पीड़ा को वे तुरंत पा जाते हैं. प्रेमयुक्त कोमल और सुन्दर वचन कहकर श्रीरामजी ने बहुत प्रकार से लोगों को समझाया और बहुतेरे धर्मसम्बन्धी उपदेश दिए; परंतु प्रेमवश लोग लौटाये लौटते नहीं. शील और स्नेह छोड़ा नहीं जाता. श्रीरघुनाथजी असमंजस के अधीन हो गए. शोक और परिश्रम (थकावट) के मारे लोग सो गए और कुछ देवताओं की माया से भी उनकी बुद्धि मोहित हो गई.जब दो पहर रात बीत गई, तब श्रीरामचन्द्रजी ने प्रेमपूर्वक मन्त्री सुमन्त्र से कहा- हे तात! रथ के खोज मारकर (अर्थात पहियों के चिह्नों से दिशा का पता न चले इस प्रकार) रथ को हांकिए और किसी उपाय से बात नहीं बनेगी. शंकरजी के चरणों में सिर नवाकर श्रीरामजी, लक्ष्मणजी और सीताजी रथपर सवार हुए. मन्त्री ने तुरंत ही रथ को, इधर-उधर खोज छिपाकर चला दिया. सबेरा होते ही सब लोग जागे, तो बड़ा शोर मचा कि श्रीरघुनाथजी चले गए. कहीं रथ का खोज नहीं पाते, सब ‘हा राम! हा राम!’ पुकारते हुए चारों ओर दौड़ रहे हैं. मानो समुद्र में जहाज डूब गया हो, जिससे व्यापारियों का समुदाय बहुत ही व्याकुल हो उठा हो. वे एक-दूसरे को उपदेश देते हैं कि श्रीरामचन्द्रजी ने, हमलोगों को क्लेश होगा, यह जानकर छोड़ दिया है. वे लोग अपनी निन्दा करते हैं और मछलियों की सराहना करते हैं. कहते हैं- श्रीरामचन्द्रजी के बिना हमारे जीने को धिक्कार है. विधाता ने यदि प्यारे का वियोग ही रचा, तो फिर उसने मांगने पर मृत्यु क्यों नहीं दी! इस प्रकार बहुत-से प्रलाप करते हुए वे सन्ताप से भरे हुए अयोध्याजी में आए. उन लोगों के विषम वियोग की दशा का वर्णन नहीं किया जा सकता. चौदह साल की अवधि की आशा से ही वे प्राणों को रख रहे हैं. सब स्त्री-पुरुष श्रीरामचन्द्रजी के दर्शन के लिए नियम और व्रत करने लगे और ऐसे दुखी हो गए जैसे चकवा, चकवी और कमल सूर्य के बिना दीन हो जाते हैं.सीताजी और मन्त्री सहित दोनों भाई शृंगवेरपुर जा पहुंचे. वहां गंगाजी को देखकर श्रीरामजी रथ से उतर पड़े और बड़े हर्ष के साथ उन्होंने दंडवत की. लक्ष्मणजी, सुमन्त्र और सीताजी ने भी प्रणाम किया. सबके साथ श्रीरामचन्द्रजी ने सुख पाया. गंगाजी समस्त आनंद मंगलों की मूल हैं. वे सब सुखों की करने वाली और सब पीड़ाओं की हरने वाली हैं. अनेक कथा-प्रसंग कहते हुए श्रीरामजी गंगाजी की तरंगों को देख रहे हैं. उन्होंने मन्त्री को, छोटे भाई लक्ष्मणजी को और प्रिया सीताजी को देवनदी गंगाजी की बड़ी महिमा सुनाई. इसके बाद सबने स्नान किया, जिससे मार्ग का सारी थकावट दूर हो गई और पवित्र जल पीते ही मन प्रसन्न हो गया. जिनके स्मरण मात्र से बार-बार जन्मने और मरने का महान श्रम मिट जाता है, उनको ‘श्रम’ होना यह केवल लौकिक व्यवहार (नरलीला) है. सच्चिदानन्द-कन्दस्वरूप सूर्यकुल के ध्वजारूप भगवान श्रीरामचन्द्रजी मनुष्यों के सदृश ऐसे चरित्र करते हैं जो संसाररूपी समुद्र के पार उतरने के लिए पुल के समान हैं. जब निषादराज गुह ने यह खबर पाई, तब आनन्दित होकर उसने अपने प्रियजनों और भाई-बन्धुओं को बुला लिया और भेंट देने के लिए फल, मूल (कन्द) लेकर और उन्हें भारों (बहंगियों) में भरकर मिलने के लिए चला. उसके हृदय में हर्ष का पार नहीं था. दंडवत करके भेंट सामने रखकर वह अत्यन्त प्रेम से प्रभु को देखने लगा. श्रीरघुनाथजी ने स्वाभाविक स्नेह के वश होकर उसे अपने पास बैठाकर कुशल पूछी.निषादराज ने उत्तर दिया- हे नाथ! आपके चरणकमल के दर्शन से ही कुशल है. आज मैं भाग्यवान पुरुषों की गिनती में आ गया. हे देव! यह पृथ्वी, धन और घर सब आपका है. मैं तो परिवार सहित आपका नीच सेवक हूं. अब कृपा करके पुर (शृंगवेरपुर) में पधारिये और इस दास की प्रतिष्ठा बढ़ाइए, जिससे सब लोग मेरे भाग्य की बड़ाई करें. श्रीरामचन्द्रजी ने कहा- हे सुजान सखा! तुमने जो कुछ कहा सब सत्य है. परन्तु पिताजी ने मुझको और ही आज्ञा दी है. उनके आज्ञानुसार मुझे चौदह वर्ष तक मुनियों का व्रत और वेष धारणकर और मुनियों के योग्य आहार करते हुए वन में ही बसना है, गांव के भीतर निवास करना उचित नहीं है. यह सुनकर गुह को बड़ा दुख हुआ. श्रीरामजी, लक्ष्मणजी और सीताजी के रूप को देखकर गांव के स्त्री-पुरुष प्रेम के साथ चर्चा करते हैं. कोई कहती है- हे सखी! कहो तो, वे माता-पिता कैसे हैं, जिन्होंने ऐसे सुन्दर सुकुमार बालकों को वन में भेज दिया है! कोई एक कहते हैं- राजा ने अच्छा ही किया, इसी बहाने हमें भी ब्रह्मा ने नेत्रों का लाभ दिया. तब निषादराज ने हृदय में अनुमान किया, तो अशोक के पेड़ को उनके ठहरने के लिए मनोहर समझा. उसने श्रीरघुनाथजी को ले जाकर वह स्थान दिखाया. श्रीरामचन्द्रजी ने देखकर कहा कि यह सब प्रकार से सुन्दर है. पुरवासी लोग जोहार (वन्दना) करके अपने-अपने घर लौटे और श्रीरामचन्द्रजी सन्ध्या करने पधारे.
गुह ने इसी बीच कुश और कोमल पत्तों की कोमल और सुन्दर साथरी सजाकर बिछा दी; और पवित्र, मीठे और कोमल देख-देखकर दोनों में भर-भरकर फल-मूल और पानी रख दिया. सीताजी, सुमन्त्रजी और भाई लक्ष्मणजी सहित कन्द-मूल- फल खाकर रघुकुलमणि श्रीरामचन्द्रजी लेट गए. भाई लक्ष्मणजी उनके पैर दबाने लगे. फिर प्रभु श्रीरामचन्द्रजी को सोते जानकर लक्ष्मणजी उठे और कोमल वाणी से मन्त्री सुमन्त्रजी को सोने के लिए कहकर वहां से कुछ दूर पर धनुष-बाण से सजकर, वीरासन से बैठकर पहरा देने लगे.
गुह ने विश्वासपात्र पहरेदारों को बुलाकर अत्यन्त प्रेम से जगह-जगह नियुक्त कर दिया. और आप कमर में तरकस बांधकर तथा धनुष पर बाण चढ़ाकर लक्ष्मणजी के पास जा बैठा. प्रभु को जमीन पर सोते देखकर प्रेमवश निषादराज के हृदय में विषाद हो आया. उसका शरीर पुलकित हो गया और नेत्रों से प्रेमाश्रुओं का जल बहने लगा. वह प्रेमसहित लक्ष्मणजी से वचन कहने लगा- महाराज दशरथजी का महल तो स्वभाव से ही सुन्दर है, इन्द्रभवन भी जिसकी समानता नहीं पा सकता. उसमें सुन्दर मणियों के रचे चौबारे (छत के ऊपर बंगले) हैं, जिन्हें मानो रति के पति कामदेव ने अपने ही हाथों सजाकर बनाया है; जो पवित्र, बड़े ही विलक्षण, सुन्दर भोगपदार्थों से पूर्ण और फूलों की सुगन्ध से सुवासित हैं; जहां सुन्दर पलंग और मणियों के दीपक हैं तथा सब प्रकार का पूरा आराम है; जहां ओढ़ने-बिछाने के अनेकों वस्त्र, तकिये और गद्दे हैं, जो दूध के फेन के समान कोमल, निर्मल (उज्ज्वल) और सुन्दर हैं; वहां (उन चौबारों में) श्रीसीताजी और श्रीरामचन्द्रजी रात को सोया करते थे और अपनी शोभा से रति और कामदेव के गर्व को हरण करते थे.वही श्रीसीता और श्रीरामजी आज घास-फूस की साथरी पर थके हुए बिना वस्त्र के ही सोये हैं. ऐसी दशा में वे देखे नहीं जाते. माता, पिता, कुटुम्बी, पुरवासी (प्रजा), मित्र, अच्छे शील-स्वभाव के दास और दासियां सब जिनकी अपने प्राणों की तरह सार-संभार करते थे, वही प्रभु श्रीरामचन्द्रजी आज पृथ्वी पर सो रहे हैं. जिनके पिता जनकजी हैं, जिनका प्रभाव जगत में प्रसिद्ध है; जिनके ससुर इन्द्र के मित्र रघुराज दशरथजी हैं, और पति श्रीरामचन्द्रजी हैं, वही जानकीजी आज जमीन पर सो रही हैं. विधाता किसको प्रतिकूल नहीं होता! सीताजी और श्रीरामचन्द्रजी क्या वन के योग्य हैं? लोग सच कहते हैं कि कर्म (भाग्य) ही प्रधान है. कैकयराज की लड़की नीचबुद्धि कैकेयी ने बड़ी ही कुटिलता की, जिसने रघुनन्दन श्रीरामजी को और जानकीजी को सुख के समय दुख दिया. वह सूर्यकुलरूपी वृक्ष के लिए कुल्हाड़ी हो गई. उस कुबुद्धि ने सम्पूर्ण विश्व को दुखी कर दिया. श्रीराम-सीता को जमीन पर सोते हुए देखकर निषाद को बड़ा दुख हुआ. तब लक्ष्मणजी ज्ञान, वैराग्य और भक्ति के रस से सनी हुई मीठी और कोमल वाणी बोले– हे भाई! कोई किसी को सुख-दुख देने वाला नहीं है. सब अपने ही किए हुए कर्मों का फल भोगते हैं. संयोग (मिलना), वियोग (बिछुड़ना), भले-बुरे भोग, शत्रु, मित्र और उदासीन से सभी भ्रम के फंदे हैं. जन्म-मृत्यु, सम्पत्ति-विपत्ति, कर्म और काल जहां तक जगत के जंजाल हैं. धरती, घर, धन, नगर, परिवार, स्वर्ग और नरक आदि जहां तक व्यवहार हैं जो देखने, सुनने और मन के अंदर विचारने में आते हैं, इन सबका मूल मोह (अज्ञान) ही है. परमार्थतः ये नहीं हैं. जैसे स्वप्न में राजा भिखारी हो जाए या कंगाल स्वर्ग का स्वामी इन्द्र हो जाए, तो जागने पर लाभ या हानि कुछ भी नहीं है; वैसे ही इस दृश्य-प्रपंच को हृदय से देखना चाहिए. ऐसा विचारकर क्रोध नहीं करना चाहिए और न किसी को व्यर्थ दोष ही देना चाहिए. सब लोग मोहरूपी रात्रि में सोने वाले हैं और सोते हुए उन्हें अनेकों प्रकार के स्वप्न दिखाई देते हैं. इस जगत्रूपी रात्रि में योगी लोग जागते हैं, जो परमार्थी हैं और प्रपंच से हुए हैं. जगत में जीव को जागा हुआ तभी जानना चाहिए जब सम्पूर्ण भोग-विलासों से वैराग्य हो जाय. विवेक होने पर मोहरूपी भ्रम भाग जाता है, तब अज्ञान का नाश होने पर श्रीरघुनाथजी के चरणों में प्रेम होता है. हे सखा! मन, वचन और कर्म से श्रीरामजी के चरणों में प्रेम होना, यही सर्वश्रेष्ठ परमार्थ है. श्रीरामजी परमार्थस्वरूप परब्रह्म हैं. वे अविगत (जानने में न आने वाले), अलख (स्थूल दृष्टि से देखने में न आने वाले), अनादि (आदिरहित), अनुपम (उपमारहित), सब विकारों से रहित और भेदशून्य हैं, वेद जिनका नित्य ‘नेति-नेति’ कहकर निरूपण करते हैं.वहीं कृपालु श्रीरामचन्द्रजी भक्त, भूमि, ब्राह्मण, गौ और देवताओं के हित के लिए मनुष्य शरीर धारण करके लीलाएं करते हैं, जिनके सुनने से जगत के जंजाल मिट जाते हैं. हे सखा! ऐसा समझ, मोह को त्यागकर श्रीसीतारामजी के चरणों में प्रेम करो. इस प्रकार श्रीरामचन्द्रजी के गुण कहते-कहते सबेरा हो गया! तब जगत का मंगल करने वाले और उसे सुख देने वाले श्रीरामजी जागे. शौच के सब कार्य करके नित्य पवित्र और सुजान श्रीरामचन्द्रजी ने स्नान किया. फिर बड़ का दूध मंगाया और छोटे भाई लक्ष्मणजी सहित उस दूध से सिरपर जटाएं बनायीं. यह देखकर सुमन्त्रजी के नेत्रों में जल छा गया. उनका हृदय अत्यन्त जलने लगा, मुंह मलिन (उदास) हो गया. वे हाथ जोड़कर अत्यन्त दीन वचन बोले- हे नाथ! मुझे कोसलनाथ दशरथजी ने ऐसी आज्ञा दी थी कि तुम रथ लेकर श्रीरामजी के साथ जाओ; वन दिखाकर, गंगा स्नान कराकर दोनों भाइयों को तुरंत लौटा लाना. सब संशय और संकोच को दूर करके लक्ष्मण, राम, सीता को फिरा लाना. महाराज ने ऐसा कहा था, अब प्रभु जैसा कहें, मैं वही करूं; मैं आपकी बलिहारी हूं. इस प्रकार विनती करके वे श्रीरामचन्द्रजी के चरणों में गिर पड़े और उन्होंने बालक की तरह रो दिया. और कहा- हे तात! कृपा करके वही कीजिये जिससे अयोध्या अनाथ न हो.
श्रीरामजी ने मन्त्री को उठाकर धैर्य बंधाते हुए समझाया कि हे तात!
आपने तो धर्म के सभी सिद्धान्तों को छान डाला है. शिबि, दधीचि और राजा हरिश्चन्द्र ने धर्म के लिए करोड़ों कष्ट सहे थे. बुद्धिमान् राजा रन्तिदेव और बलि बहुत से संकट सहकर भी धर्म को पकड़े रहे. वेद, शास्त्र और पुराणों में कहा गया है कि सत्य के समान दूसरा धर्म नहीं है. मैंने उस धर्म को सहज ही पा लिया है. इस सत्यरूपी धर्म का त्याग करने से तीनों लोकों में अपयश छा जाएगा. प्रतिष्ठित पुरुष के लिए अपयश की प्राप्ति करोड़ों मृत्यु के समान भीषण सन्ताप देने वाली है. हे तात! मैं आपसे अधिक क्या कहूं! लौटकर उत्तर देने में भी पाप का भागी होता हूं. आप जाकर पिताजी के चरण पकड़कर करोड़ों नमस्कार के साथ ही हाथ जोड़कर विनती करिएगा कि हे तात! आप मेरी किसी बात की चिन्ता न करें. आप भी पिता के समान ही मेरे बड़े हितैषी हैं. हे तात! मैं हाथ जोड़कर आपसे विनती करता हूं कि आपका भी सब प्रकार से वही कर्तव्य है जिसमें पिताजी हमलोगों के सोच में दुख न पावें.
श्रीरघुनाथजी और सुमन्त्र का यह संवाद सुनकर निषादराज कुटुम्बियों सहित व्याकुल हो गया.
फिर लक्ष्मणजी ने कुछ कड़वी बात कही. प्रभु श्रीरामचन्द्रजी ने उसे बहुत ही अनुचित जानकर उनको मना किया.श्रीरामचन्द्रजी ने सकुचाकर, अपनी सौगंध दिलाकर सुमन्त्रजी से कहा कि आप जाकर लक्ष्मण का यह सन्देश न कहियेगा. सुमन्त्र ने फिर राजा का सन्देश कहा कि सीता वन के क्लेश न सह सकेंगी. अतएव जिस तरह सीता अयोध्या को लौट आवें, तुमको और श्रीरामचन्द्रजी को वही उपाय करना चाहिए. नहीं तो मैं बिलकुल ही बिना सहारे का होकर वैसे ही नहीं जिऊंगा जैसे बिना जल के मछली नहीं जीती. सीता के मायके और ससुराल में सब सुख हैं. जबतक यह विपत्ति दूर नहीं होती, तबतक वे जब जहां जी चाहे, वहीं सुख से रहेंगी. राजा ने जिस तरह विनती की है, वह दीनता और प्रेम कहा नहीं जा सकता. कृपानिधान श्रीरामचन्द्रजी ने पिता का सन्देश सुनकर सीताजी को अनेकों प्रकार से सीख दी उन्होंने कहा- जो तुम घर लौट जाओ, तो सास, ससुर, गुरु, प्रियजन एवं कुटुम्बी सबकी चिन्ता मिट जाए. पति के वचन सुनकर जानकीजी कहती हैं- हे प्राणपति! हे परम स्नेही! सुनिए.हे प्रभु! आप करुणामय और परम ज्ञानी हैं. शरीर को छोड़कर छाया अलग कैसे रह सकती है? सूर्य की प्रभा सूर्य को छोड़कर कहां जा सकती है? और चांदनी चन्द्रमा को त्यागकर कहां जा सकती है? पति को प्रेममयी विनती सुनाकर सीताजी मन्त्री से सुहावनी वाणी कहने लगीं- आप मेरे पिताजी और ससुरजीके समान मेरा हित करने वाले हैं. आपको मैं बदले में उत्तर देती हूं, यह बहुत ही अनुचित है. किन्तु हे तात! मैं आर्त्त होकर ही आपके सम्मुख हुई हूं, आप बुरा न मानियेगा. आर्यपुत्र (स्वामी) के चरणकमलों के बिना जगत् में जहां तक नाते हैं सभी मेरे लिए व्यर्थ हैं. मैंने पिताजी के ऐश्वर्य की छटा देखी है, जिनके चरण रखने की चौकी से सर्वशिरोमणि राजाओं के मुकुट मिलते हैं. ऐसे पिता का घर भी, जो सब प्रकार के सुखों का भंडार है, पति के बिना मेरे मन को भूलकर भी नहीं भाता. मेरे ससुर कोसलराज चक्रवर्ती सम्राट हैं, जिनका प्रभाव चौदहों लोकों में प्रकट है; इन्द्र भी आगे होकर जिनका स्वागत करता है और अपने आधे सिंहासन पर बैठने के लिए स्थान देता है. ऐसे ऐश्वर्य और प्रभावशाली ससुर; उनकी राजधानी अयोध्या का निवास; प्रिय कुटुम्बी और माता के समान सासें- ये कोई भी श्रीरघुनाथजी के चरणकमलों की रज के बिना मुझे स्वप्न में भी सुखदायक नहीं लगते. दुर्गम रास्ते, जंगली धरती, पहाड़, हाथी, सिंह, अथाह तालाब एवं नदियां; कोल, भील, हिरन और पक्षी-प्राणपति (रघुनाथजी) के साथ रहते ये सभी मुझे सुख देने वाले होंगे. अतः सास और ससुर के पांव पड़कर, मेरी ओर से विनती कीजियेगा कि वे मेरा कुछ भी सोच न करें; मैं वन में स्वभाव से ही सुखी हूं. वीरों में अग्रगण्य तथा धनुष और बाणों से भरे तरकश धारण किए मेरे प्राणनाथ और प्यारे देवर साथ हैं. इससे मुझे न रास्ते की थकावट है, न भ्रम है, और न मेरे मन में कोई दुःख ही है. आप मेरे लिए भूलकर भी सोच न करें.
सुमन्त्र सीताजी की शीतल वाणी सुनकर ऐसे व्याकुल हो गए, जैसे सांप मणि खो जाने पर.
नेत्रों से कुछ सूझता नहीं, कानों से सुनायी नहीं देता. वे बहुत व्याकुल हो गए, कुछ कह नहीं सकते. श्रीरामचन्द्रजी ने उनका बहुत प्रकार से समाधान किया. तो भी उनकी छाती ठंडी न हुई. साथ चलने के लिए मन्त्री ने अनेकों यत्न किए, पर रघुनन्दन श्रीरामजी उन सब युक्तियों का यथोचित उत्तर देते गए श्रीरामजी की आज्ञा मेटी नहीं जा सकती. कर्म की गति कठिन है, उसपर कुछ भी वश नहीं चलता. श्रीराम, लक्ष्मण और सीताजी के चरणों में सिर नवाकर सुमन्त्र इस तरह लौटे जैसे कोई व्यापारी अपना मूलधन गंवाकर लौटे. सुमन्त्र ने रथ को हांका, घोड़े श्रीरामचन्द्रजी की ओर देख-देखकर हिनहिनाते हैं. यह देखकर निषादलोग विषाद के वश होकर सिर धुन-धुनकर (पीट-पीटकर) पछताते हैं. जिनके वियोग में पशु इस प्रकार व्याकुल हैं, उनके वियोग में प्रजा, माता और पिता कैसे जीते रहेंगे? श्रीरामचन्द्रजी ने जबर्दस्ती सुमन्त्र को लौटाया. तब आप गंगाजी तीर पर आए. श्रीरामने केवट से नाव मांगी, पर वह लाता नहीं. वह कहने लगा- मैंने तुम्हारा मर्म (भेद) जान लिया. तुम्हारे चरणकमलों की धूल के लिए सब लोग कहते हैं कि वह मनुष्य बना देने वाली कोई जड़ी है, जिसके छूते ही पत्थर की शिला सुन्दरी स्त्री हो गई, मेरी नाव तो काठकी है. काठ पत्थर से कठोर तो होता नहीं. मेरी नाव भी मुनि की स्त्री हो जाएगी और इस प्रकार मेरी नाव उड़ जाएगी, मैं लुट जाऊंगा.मैं तो इसी नाव से सारे परिवार का पालन-पोषण करता हूं. दूसरा कोई धंधा नहीं जानता. हे प्रभु! यदि तुम अवश्य ही पार जाना चाहते हो तो मुझे पहले अपने चरण-कमल पखारने (धो लेने) के लिए कह दो. हे नाथ! मैं चरणकमल धोकर आप लोगों को नाव पर चढ़ा लूंगा; मैं आपसे कुछ उतराई नहीं चाहता. हे राम! मुझे आपकी दुहाई और दशरथजी की सौगंध है, मैं सब सच-सच कहता हूं. लक्ष्मण भले ही मुझे तीर मारें, पर जबतक मैं पैरों को पखार न लूंगा, तब तक हे तुलसीदास के नाथ! हे कृपालु! मैं पार नहीं उतारूंगा. केवट के प्रेम में लपेटे हुए अटपटे वचन सुनकर करुणाधाम श्रीरामचन्द्रजी जानकीजी और लक्ष्मणजी की ओर देखकर हंसे. कृपा के समुद्र श्रीरामचन्द्रजी केवट से मुस्कुराकर बोले- भाई! तू वही कर जिससे तेरी नाव न जाए. जल्दी पानी ला और पैर धो ले. देर हो रही है, पार उतार दे. एक बार जिनका नाम स्मरण करते ही मनुष्य अपार भवसागर के पार उतर जाते हैं, और जिन्होंने वामनावतार में जगत को तीन पग से भी छोटा कर दिया था (दो ही पग में त्रिलोकी को नाप लिया था), वही कृपालु श्रीरामचन्द्रजी (गंगाजी से पार उतारने के लिए) केवट का निहोरा कर रहे हैं! प्रभु के इन वचनों को सुनकर गंगाजी की बुद्धि मोह से खिंच गई थी.परंतु पदनखों को देखते ही देवनदी गंगाजी हर्षित हो गईं. (वे समझ गयीं कि भगवान् नरलीला कर रहे हैं, इससे उनका मोह नष्ट हो गया; और इन चरणों का स्पर्श प्राप्त करके मैं धन्य होऊंगी, यह विचारकर वे हर्षित हो गईं.) केवट श्रीरामचन्द्रजी की आज्ञा पाकर कठौते में भरकर जल ले आया. अत्यन्त आनन्द और प्रेम में उमंगकर वह भगवान् के चरणकमल धोने लगा. सब देवता फूल बरसाकर सिहाने लगे कि इसके समान पुण्य की राशि कोई नहीं है. चरणों को धोकर और सारे परिवार सहित स्वयं उस जल (चरणोदक) को पीकर पहले अपने पितरों को भवसागर से पारकर फिर आनन्दपूर्वक प्रभु श्रीरामचन्द्र को गंगाजी के पार ले गया. निषादराज और लक्ष्मणजी सहित श्रीसीताजी और श्रीरामचन्द्रजी नाव से उतरकर गंगाजी की रेत में खड़े हो गए. तब केवट ने उतरकर दंडवत किया. उसको दंडवत करते देखकर प्रभु को संकोच हुआ कि इसको कुछ दिया नहीं. पति के हृदय की जानने वाली सीताजी ने आनन्दभरे मन से अपनी रत्नजटित अंगूठी उतारी. कृपालु श्रीरामचन्द्रजी ने केवट से कहा, नाव की उतराई लो. केवट ने व्याकुल होकर चरण पकड़ लिए.उसने कहा- हे नाथ! आज मैंने क्या नहीं पाया! मेरे दोष, दुख और दरिद्रता की आग आज बुझ गई है. मैंने बहुत समय तक मजदूरी की. विधाता ने आज बहुत अच्छी भरपूर मजदूरी दे दी. हे नाथ! हे दीनदयाल! आपकी कृपा से अब मुझे कुछ नहीं चाहिए. लौटती बार आप मुझे जो कुछ देंगे, वह प्रसाद मैं सिर चढ़ाकर लूंगा.
प्रभु श्रीरामजी, लक्ष्मणजी और सीताजी ने बहुत आग्रह किया, पर केवट कुछ नहीं लेता.
तब करुणा के धाम भगवान श्रीरामचन्द्रजी ने निर्मल भक्ति का वरदान देकर उसे विदा किया. फिर रघुकुल के स्वामी श्रीरामचन्द्रजी ने स्नान करके पार्थिव पूजा की और शिवजी को सिर नवाया. सीताजी ने हाथ जोड़कर गंगाजी से कहा- हे माता! मेरा मनोरथ पूरा कीजिएगा. जिससे मैं पति और देवर के साथ कुशलपूर्वक लौट आकर तुम्हारी पूजा करूं. सीताजी की प्रेमरस में सनी हुई विनती सुनकर तब गंगाजी के निर्मल जल में से श्रेष्ठ वाणी हुई- हे रघुवीर की प्रियतमा जानकी! सुनो, तुम्हारा प्रभाव जगत में किसे नहीं मालूम है? तुम्हारे कृपादृष्टि से देखते ही लोग लोकपाल हो जाते हैं. सब सिद्धियां हाथ जोड़े तुम्हारी सेवा करती हैं. तुमने जो मुझको बड़ी विनती सुनाई, यह तो मुझपर कृपा की और मुझे बड़ाई दी है. तो भी हे देवी! मैं अपनी वाणी सफल होने के लिए तुम्हें आशीर्वाद दूंगी. तुम अपने प्राणनाथ और देवरसहित कुशलपूर्वक अयोध्या लौटोगी. तुम्हारी सारी मनोकामनाएं पूरी होंगी और तुम्हारा सुन्दर यश जगत भर में छा जाएगा. मंगल के मूल गंगाजी के वचन सुनकर और देवनदी को अनुकूल देखकर सीताजी आनन्दित हुईं. तब प्रभु श्रीरामचन्द्रजी ने निषादराज गुह से कहा कि भैया! अब तुम घर जाओ. यह सुनते ही उसका मुंह सूख गया और हृदय में दाह उत्पन्न हो गया.
आगे की कहानी अगले एपिसोड में